कन्याकुमारी को क्यों कहते हैं कन्याकुमारी

इक्यावन शक्ति पीठों में से एक कन्याकुमारी को क्यों कहते हैं कन्याकुमारी

कन्या कुमारी शब्द बरसो से हम भारतीयों को एक होने का अनुभव कराता रहा। शोर्य की  हर बात में हम कहते रहे हैं की भारत कश्मीर से कन्याकुमारी  तक एक हैं। कन्या कुमारी को  अंग्रेजो के समय केप कोमोरिन के नाम से भी जाना जाता रहा हैं।

कन्याकुमारी तमिलनाडु प्रान्त के सुदूर दक्षिण तट पर बसा एक शहर है। यह हिन्द महासागर, बंगाल की खाड़ी तथा अरब सागर का संगम स्थल है, जहां भिन्न सागर अपने विभिन्न रंगो से मनोरम छटा बिखेरते हैं।

भारत के दक्षिण छोर पर बसा कन्याकुमारी वर्षो से कला, संस्कृति, सभ्यता का प्रतीक रहा है। भारत के पर्यटक स्थल के रूप में भी इस स्थान का अपना ही महत्व हैं। दूर-दूर फैले समुद्र के विशाल लहरों के बीच यहां का सूर्योदय और सूर्यास्त का नजारा बेहद आकर्षक लगता हैं।

समुद्र तट पर फैली रंग बिरंगी रेत इसकी सुंदरता में चार चांद लगा देती है।कन्याकुमारी दक्षिण भारत के महान शासकों चोल, चेर, पांड्य के अधीन रहा है। यहां के स्मारकों पर इन शासकों की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। इस जगह का नाम कन्‍याकुमारी पड़ने के पीछे एक पौराणिक कथा प्रचलित है।

कहा जाता है कि भगवान शिव ने असुर बाणासुर को वरदान दिया था कि कुंवारी कन्या के अलावा किसी के हाथों उसका वध नहीं होगा। प्राचीन काल में भारत पर शासन करने वाले राजा भरत को आठ पुत्री और एक पुत्र था। भरत ने अपना साम्राज्य को नौ बराबर हिस्सों में बांटकर अपनी संतानों को दे दिया।

दक्षिण का हिस्सा उसकी पुत्री कुमारी को मिला। कुमारी को शक्ति देवी का अवतार माना जाता था। कुमारी ने दक्षिण भारत के इस हिस्से पर कुशलतापूर्वक शासन किया। उसकी ईच्‍छा थी कि वह शिव से विवाह करें। इसके लिए वह उनकी पूजा करती थी।

शिव विवाह के लिए राजी भी हो गए थे और विवाह की तैयारियां होने लगीं थी। लेकिन नारद मुनि चाहते थे कि बाणासुर का कुमारी के हाथों वध हो जाए। इस कारण शिव और देवी कुमारी का विवाह नहीं हो पाया।

इस बीच बाणासुर को जब कुमारी की सुंदरता के बारे में पता चला तो उसने कुमारी के समक्ष शादी का प्रस्ताव रखा। कुमारी ने कहा कि यदि वह उसे युद्ध में हरा देगा तो वह उससे विवाह कर लेगी। दोनों के बीच युद्ध हुआ और बाणासुर को मृत्यु की प्राप्ति हुई।

कुमारी की याद में ही दक्षिण भारत के इस स्थान को कन्याकुमारी कहा जाता है।माना जाता है कि शिव और कुमारी के विवाह की तैयारी का सामान  गेहू व चावल थे, आगे चलकर रंग बिरंगी रेत में परिवर्तित हो गये।

सागर के मुहाने के दाई और स्थित यह एक छोटा सा मंदिर है जो पार्वती को समर्पित है। मंदिर तीनों समुद्रों के संगम स्थल पर बना हुआ है। यहां सागर की लहरों की आवाज स्वर्ग के संगीत की भांति सुनाई देती है। भक्तगण मंदिर में प्रवेश करने से पहले त्रिवेणी संगम में डुबकी लगाते हैं जो मंदिर के बाई ओर 500 मीटर की दूरी पर है। मंदिर का पूर्वी प्रवेश द्वार को हमेशा बंद करके रखा जाता है क्योंकि मंदिर में स्थापित देवी के आभूषण की रोशनी से समुद्री जहाज इसे लाइटहाउस समझने की भूल कर बैठते है और जहाज को किनारे करने के चक्‍कर में दुर्घटनाग्रस्‍त हो जाते है।हिन्दुओ के लिए हमेशा से यह स्थान पावन एवं पवित्र माना जाता रहा हैं।

यह एक ऐसा स्थान हैं जहा देवी भगवती के नाबालिंग रूप की पूजा होती हैं।पुराने ग्रंथो में इस स्थान का जिक्र मिलता हैं. एक अन्य पोरानिक कथा के अनुसार ये स्थान हिन्दू धर्म के 51 शक्ति पीठो में से एक हैं. यहाँ  देवी सती की पीठ गिरी थी और यहाँ देवी के पीठ रूप की पूजा होती हैं।

एक अन्य कथा के अनुसार जब देवी कन्या ने शिव से विवाह की इच्छा जताई और इसके लिए देवी ने समुन्द्र में एक चट्टान पर एक पैर पर खड़े  होकर शिव को प्रसन्न कर उन्हें विवाह के राजी किया तो शिव ने विवाह के लिए एक नियत समय तय किया।

उस दिन भगवान शिव कैलाश से बारात लेकर चले, पर जिस रात को शिव को समुन्द्र तट पर पहुचना था उस रात को वे वहा पहुचते उससे पहले नारद जी, जो की बाणासुर का वध कुँवारी कन्या के हाथो करवाना चाहते थे।

 उन्होंने  मुर्गा बन कर बाग लगा दी और दिन का उदय कर दिया इस तरह  भगवान शिव कन्याकुमारी स्थान से  10 किलोमीटर दूर एक स्थान जो आज शुचीन्द्रम के नाम से जाना जाता हैं वहा रुक गए। इस प्रकार पार्वती अवतार देवी और शिव का मिलाप नहीं हो सका।

आज भी शुचीन्द्रम में शिव का विशाल मंदिर बना हुआ हैं. तथा कन्याकुमारी में उस चट्टान पर जहा देवी ने तप किया था वहा पर भी देवी के एक पैर की प्रतिकृति उकरी  हुई हैं। अब  वहा  पद मंडपम नाम का छोटा सा मंदिर बना हुआ हैं। 

एक अन्य पोराणीक कथा के अनुसार जब हनुमानजी लक्ष्मण के लिए संजीवनी पर्वत को लेकर लंका की और जा रहे थे, तब समुन्द्र तट से कुछ  दूर संजीवनी पहाड़ का एक टुकड़ा टूट कर नीचे गिर गया।

जिसे आज मरुन्यु वजुम पर्वत कहते हैं। अब ये पर्वत कन्याकुमारी से नागरकोइल हाईवे पर कोतत्रम नामक जगह पर हैं। और क्योंकि संजीवनी बूटी वाला पर्वत दवाओ का भंडार था और ये पहाड़ भी उस पवित्र पर्वत का ही टुकड़ा था तो इस पर्वत पर भी आयुर्वेदिक वनस्पतियो का भंडार हैं।

अगस्त्य मुनि जो स्वयं एक आयुर्वेद ज्ञाता थे इस पर्वत पर ही रहते थे वहाँ पर  उनकी कुटिया आज भी विद्यमान हैं। तथा सुचिन्द्रम में जहा भगवान शिव का मंदिर हैं उसी मन्दिर में  हनुमान जी  की भी ऊँची और भव्य मूर्ति हैं जो बरबस ही  श्रद्धालु का ध्यान आकर्षित कर लेती हैं।

कालांतर में इस स्थान को अगस्त्य मुनि के नाम पर अगस्तीवरम भी कहा जाने लगा।क्योंकि देवी भगवती का विवाह शिव से न हो सका तो देवी ने सन्यास ले लिया था। अतः हर व्यक्ति जो सन्यास लेना चाहता हैं या सन्यासी हैं उसे भी इस पावन और पवित्र स्थान के दर्शन अवश्य करने चाहिए।

स्वामी विवेकानंद जी जो की सन्यासी थे ने भी अपने गुरु के कहे अनुसार  इस स्थान पर आराधना व ध्यान किया था।  समुन्द्र में स्थित दो चट्टानें जहा एक पर देवी ने तप किया था उसके सामने बैठ कर तीन तीन दिन तक ध्यान किया था. उसी चट्टान पर आज एक तरफ पद मंडपम हैं और दूसरी तरफ विवेकानंदध्यान योग केंद्र बना हुआ हैं।

जिसमे स्वामीजी की विशाल प्रतिमा भी बनी हुई हैं। इसके अलावा पास की दूसरी  चट्टान पर तिरुक्कुरुल ग्रन्थ  की रचना करने वाले अमर तमिल कवि तिरूवल्लुवर की यह प्रतिमा बनी हुई हैं जो  पर्यटकों को बहुत लुभाती हैं। ये दोनों चट्टानें समुन्द्र के अन्दर पानी में समुन्द्र तट से 500 मीटर दूर हैं। वहा पर जाने के लिए आज नावों की समुचित व्यवस्था हैं।

ये क्षेत्र पहले हिन्दू आबादी ही था, पर आंठवी शताब्दी में यहाँ ईसायत और इसलाम का प्रसार प्रचार हुआ। आज यहाँ तीनो धर्मो का अनुपात हमें देखने को मिलता हैं।

कुल मिलाकर हिन्दुओ के लिए यहाँ की जमीन और मिटटी वन्दनीय हैं क्योंकि यहाँ  महान देवताओ, महर्षियो और माँ शक्ति का आश्रय स्थल था। इन सब कथाओ के अनुसार ये स्थान हिन्दू धर्म में अत्यंत ही महान और पवित्र हैं। जहा प्रत्येक हिन्दू को जीवन काल में यात्रा करनी चाहिएl

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाःhttps://divinesanskiriti.com/

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